Thursday 29 January 2015

Ye berukhi na dikhao ke raat jaati hai/ ये बेरूख़ी न दिखाओ के रात जाती है

ये बेरूख़ी न दिखाओ के रात जाती है
नक़ाब रुख़ से उठाओ के रात जाती है

शब-ए-विसाल भी ऐ दोस्त ख़ामोशी क्यूँ है
कोई तो बात सुनाओ के रात जाती है

(शब-ए-विसाल = मिलन की रात)

जो मैकदे में नहीं मय तो क्या हुआ साक़ी
सुबू ही धो के पिलाओ के रात जाती है

(सुबू = शराब रखने का पात्र, मटका, घड़ा)

वो एक शब के लिए मेरे घर में आए हैं
सितारे तोड़ के लाओ के रात जाती है

(शब = रात)

-सुदर्शन फ़ाकिर





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इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

तुम आये हो मैं ये कहता हूँ तुम नहीं आये
मुझे यकीन दिलाओ के रात जाती है

चराग-ए-दिल के उजाले  को तुम सहर न कहो
बहाने यूँ न बनाओ के रात जाती है

(सहर = सुबह)

तमाम उम्र पड़ी है शिकायतों के लिए
तुम आज दिल न दुखाओ के रात जाती है


Ye berukhi na dikhao ke raat jaati hai
Naqaab rukh se uthaao ke raat jaati hai

Shab-e-wisaal bhi ae dost khamoshi kyon hai
Koi to baat sunao ke raat jaati hai

Jo maikade mein nahi mai to kya hua saaqi
Suboo hi dho ke pilaao ke raat jaati hai

Wo ek shab ke liye mere ghar mein aaye hain
Sitaare tod ke laao ke raat jaati hai

-Sudarshan Faakir

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