Monday 26 January 2015

Silsila aur bhi kuch gham ka banaaya jaaye/ सिलसिला और भी कुछ ग़म का बनाया जाये

सिलसिला और भी कुछ ग़म का बनाया जाये
अपने सहराओं को समंदर से मिलाया जाये

(सहराओं = रेगिस्तानों)

मेरी रातों ने तराशे हैं जो ख़्वाबों के बदन
उनके ख़्वाबों में कोई चेहरा तो लगाया जाये

अपने क़ब्ज़े में तो ज़ख्मों की बड़ी दौलत हैं
क्यों न फिर वक़्त का सब क़र्ज़ चुकाया जाये

दिल में इस क़द्र तेरे दर्द को रख लेता हूँ
जैसे घर में किसी मुजरिम को छुपाया जाये

-ख़ुर्शीद अहमद जामी


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

जिस में हम लोग चिरागों की तरह जलते हैं
आओ वो शहर ज़माने को दिखाया जाये

मुझ से खुद अपना पता पूछ रहा था इक दिन
हाय वो शख़्स भुलाये न भुलाया जाये

मैं कोई राज़ की तहरीर नहीं हूँ 'जामी'
बंद कमरे में जिसे ला के जलाया जाये



Silsila aur bhi kuch gham ka banaaya jaaye
Apne sehraaon ko samandar mein milaaya jaaye

Meri raaton ne taraashe hain jo khwabon ke badan
Unke khwabon mein koi chehra to lagaaya jaaye

Apne kabze mein to zakhmon ki badi daulat hai
Kyon na phir waqt ka sab karz chukaaya jaaye

Dil mein is kadr tere dard ko rakh leta hoon
Jaise ghar mein kisi mujrim ko chupaaya jaaye

-Khurshid Ahmad Jaami

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