Monday 26 January 2015

Ishq mein jee ko sabr-o-taab kahan/ इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ

इश्क़ में जी को सब्र-ओ-ताब कहाँ
उस से आँखें लगीं तो ख़्वाब कहाँ

(सब्र-ओ-ताब = धैर्य और शक्ति)

हस्ती अपनी है बीच में पर्दा
हम न होवें तो फिर हिजाब कहाँ

(हस्ती = अस्तित्व, उपस्तिथि), (हिजाब = पर्दा)

इश्क़ है आशिक़ों के जलने को
ये जहन्नुम में है अज़ाब कहाँ

(जहन्नुम = नर्क), (अज़ाब = दुख, कष्ट, संकट)

गिरिया-ए-शब से सुर्ख़ हैं आँखें
मुझ बलानोश को शराब कहाँ

(गिरिया-ए-शब से = रात के रोने-धोने से), (बलानोश = महा पियक्कड़, घोर शराबी)

इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर ख़ानमाँख़राब कहाँ

(ख़ानमाँख़राब = बरबाद)

-मीर तक़ी मीर


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

बेकली दिल ही की तमाशा है
बर्क़ में ऐसे इज़्तिराब कहाँ

(बर्क़ = बिजली, गाज), (इज़्तिराब = व्याकुलता, बेचैनी, आतुरता)

महव हैं इस किताबी चेहरे के
आशिक़ों को सर-ए-किताब कहाँ

(महव = तन्मय, तल्लीन)

ख़त के आए पर कुछ कहें तो कहें
अभी मक्तूब का जवाब कहाँ

(मक्तूब = पत्र, चिट्ठी)


Ishq mein jee ko sabr-o-taab kahan
Us se ankhein lagi to khwaab kahan

Hasti apni hai beech main parda
Hum na howein to phir hijab kahan

Girya-e-shab se surkh hain aankhein
Mujh bala-nosh ko sharab kahan

Ishq hai aashikon ke jalne ko
Ye jahannum mein hai azaab kahan

Ishq ka ghar hai 'Mir' se aabaad
Aise phir khanumaan kharab kahan

-Mir Taqi Mir

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