Sunday 18 January 2015

Ishq ke shole ko bhadkaao ke kuch raat kate/ इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे

इश्क़ के शोले को भड़काओ कि कुछ रात कटे
दिल के अंगारे को दहकाओ कि कुछ रात कटे

हिज्र में मिलने शब-ए-माह के ग़म आए हैं
चारासाज़ों को भी बुलवाओ कि कुछ  रात कटे

(हिज्र = जुदाई), (शब-ए-माह = चांदनी रात), (चारासाज़ = चिकित्सक)

चश्म-ओ-रुख़सार के अज़कार को जारी रखो
प्यार के नग़मे को दोहराओ कि कुछ रात कटे

(चश्म-ओ-रुख़सार = आँखों और गालों), (अज़कार = चर्चायें, ज़िक्र का बहुवचन)

कोह-ए-ग़म और गराँ और गराँ और गराँ
ग़मज़दों तेशे को चमकाओ कि कुछ रात कटे

(कोह-ए-ग़म = दुःख का पहाड़), (गराँ = भारी), (ग़मज़दों = दुखी लोगों),  (तेशे = तलवार)

-मख़्दूम मोइउद्दीन


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

कोई जलता ही नहीं कोई पिघलता ही नहीं
मोम बन जाओ पिघल जाओ कि कुछ रात कटे

आज हो जाने दो हर एक को बद्-मस्त-ओ-ख़राब
आज एक एक को पिलवाओ कि कुछ रात कटे




Ishq ke shole ko bhadkaao ke kuch raat kate
Dil ke angaar ko dehkaao ke kuch raat kate

Hijr mein milne shab-e-maah ke gham aaye hain
Chaarasaajon ko bhi bulwaao ke kuch raat kate

Chasm-o-rukhsaar ke azgaar ko jaari rakkho
Pyaar ke naghme ko dohraao ke kuch raat kate  

Koh-e-gham aur garaan aur garaan aur garaan
Ghamzadon teshe ko chamkaao ke kuch raat kate

-Makhdoom Moinuddin

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