Thursday 29 January 2015

Humko to gardish-e-haalat pe rona aaya/ हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया

हम को तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया

कितने बेताब थे रिमझिम में पिएँगे लेकिन
आई बरसात तो बरसात पे रोना आया

कौन रोता है किसी और के ग़म की ख़ातिर
सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया

-सैफ़ुद्दीन सैफ़


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
अहल-ए-दिल की बसर औक़ात पे रोना आया

(अहल-ए-दिल = दिल वाले)

जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
हाँ मुझे तल्ख़ी-ए-हालात पे रोना आया

हुस्न-ए-मग़रूर का ये रंग भी देखा आख़िर
आख़िर उन को भी किसी बात पे रोना आया

कैस मर मर के गुज़ारी है तुम्हें क्या मालूम
रात भर तारों भरी रात पे रोना आया

हुस्न ने अपनी ज़फाओं पे बहाए आँसू
इश्क़ को अपनी शिकायत पे रोना आया

कितने अंजान है क्या सादगी से पूछते हैं
कहिए क्या मेरी किसी बात पे रोना आया

अव्वल अव्वल तो बस एक आह निकल जाती थी
आख़िर आख़िर तो मुलाक़ात पे रोना आया

'सैफ़' ये दिन तो क़यामत की तरह गुज़रा है
जाने क्या बात थी हर बात पे रोना आया



Hum ko to gardish-e-haalat pe rona aaya
Rone wale tujhe kis baat pe rona aaya

Kitne betaab the rimjhim mein piyenge lekin
Aayi barsaat to barsaat pe rona aaya

Kaun rota hai kisi aur ke gham ki khaatir
Sabko apni hi kisi baat pe rona aaya

-Saifuddin Saif

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