Sunday 30 November 2014

Apne chehre se jo zaahir hai chupaayen kaise/ अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे 
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे 

घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है 
पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे 

(तस्सवुर = कल्पना)

क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है
हँसनेवाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे 

कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा 
एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे
-वसीम बरेलवी


इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर :

लाख तलवारें बढ़ी आती हों गर्दन की तरफ
सर झुकाना नहीं आता, तो झुकायें कैसे

फूल से रंग जुदा होना कोई खेल नहीं
अपनी मिटटी को कहीं छोड़ के जायें कैसे

जिसने दानिस्ता किया हो नज़रअंदाज़ 'वसीम'
उसको कुछ याद दिलायें, तो दिलायें कैसे

(दानिस्ता = जान-बूझकर)



Apne chehre se jo zaahir hai chupaayen kaise
Teri marzi ke mutaabik nazar aayen kaise

Ghar sajaane ka tasawwur to bahut baad ka hai
Pehle ye tay ho ke is ghar ko bachayen kaise

Kah-kaha aankh ka bartaav badal deta hai
Hansne waale tujhe aansoo nazar aayen kaise

Koi apnee hi nazar se to hume dekhega
Ek qatre ko samandar nazar aayen kaise

-Waseem Barelvi

1 comment: