Saturday 1 November 2014

Mujhko yaqeen hai sach kahti thi/ मुझको यक़ीं है सच कहती थीं

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं

एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं

एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब आओ खेलें सारी गलियाँ कहती थीं

एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं

एक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का
एक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं

-जावेद अख़्तर

इसी ग़ज़ल के कुछ और अश'आर:

एक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं
एक वो दिन जब दिल में भोली-भाली बातें रहती थीं

(अय्यारी = चालाकी, धूर्तता)

एक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है
एक वो घर जिस घर में मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं





Mujhko yaqin hai sach kahti thi jo bhi ammi kahti thiN
Jab mere bachpan ke din the, chaand mein pariyaan rahti thiN

Ek ye din jab apnon ne bhi hamse naataa tod liyaa
Ek wo din jab ped ki shaakhen bojh hamaaraa sahti thiN

Ek ye din jab saari sadken roothi roothi lagti hain
Ek wo din jab aao khelen saari galiyaan kahti thiN

Ek ye din jab jaagi raaten deewaaron ko takti hain
Ek wo din jab shaamon ki bhi palken bojhal rahti thiN

Ek ye din jab laakhon gham aur kaal padaa hai aansoo kaa
Ek wo din jab ek zaraa si baat pe nadiyaan bahti thiN

-Javed Akhtar

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